Pronunciation and Orthography (उच्चारण और वर्तनी)


'ऋ', 'र' संबंधी अशुद्धियाँ

अशुद्ध शुद्ध
रितु ऋतु
व्रक्ष वृक्ष
श्रृंगार/श्रंगार शृंगार
श्रगाल/श्रृगाल शृगाल
ग्रहस्थी गृहस्थी
उरिण उऋण
आदरित आदृत
रिषि ऋषि
प्रथक् पृथक्
प्रथ्वी पृथ्वी
घ्रणा घृणा
ग्रहिणी गृहिणी

'ए', 'ऐ' संबंधी अशुद्धियाँ

अशुद्ध शुद्ध
सैना सेना
एश्वर्य ऐश्वर्य
एनक ऐनक
नैन नयन
सैना सेना
चाहिये चाहिए

'ओ', 'औ' संबंधी अशुद्धियाँ

अशुद्ध शुद्ध
रौशनी रोशनी
त्यौहार त्योहार
भोगोलिक भौगोलिक
बोद्धिक बौद्धिक
परलोकिक पारलौकिक
पोधा पौधा
चुनाउ चुनाव
होले हौले

'र' संबंधी अशुद्धियाँ

अशुद्ध शुद्ध
आर्शीवाद आशीर्वाद
कार्यकर्म कार्यक्रम
आर्दश आदर्श
नर्मी नरमी
स्त्रोत स्रोत
क्रपा कृपा
गर्म गरम

'श', 'ष', 'स' संबंधी अशुद्धियाँ

अशुद्ध शुद्ध
दुसाशन दुशासन
प्रसंशा प्रशंसा
प्रशाद प्रसाद
कश्ट कष्ट
सुशमा सुषमा
अमावश्या अमावस्या
नमश्कार नमस्कार
विषेशण विशेषण

अन्य अशुद्धियाँ

अशुद्ध शुद्ध
अकाश आकाश
अतऐव अतएव
रक्शा रक्षा
रिक्सा रिक्शा
विधालय विद्यालय
व्रंदावन वृंदावन
सकूल स्कूल
सप्ता सप्ताह
समान (वस्तु) सामान
दुरदशा दुर्दशा
परिच्छा परीक्षा
बिमार बीमार
आस्मान आसमान
गयी गई
ग्रहकार्य गृहकार्य
छमा क्षमा
जायेंगे जाएँगे
जोत्सना ज्योत्स्ना
सुरग स्वर्ग
सेनिक सैनिक

'ण' और 'न' की अशुद्धियाँ- 'ण' और 'न' के प्रयोग में सावधानी बरतने की आवश्यकता है। 'ण' अधिकतर संस्कृत शब्दों में आता है। जिन तत्सम शब्दों में 'ण' होता है, उनके तद्भव रूप में 'ण' के स्थान पर 'न' प्रयुक्त होता है; जैसे- रण-रन, फण-फन, कण-कन, विष्णु-बिसुन। खड़ीबोली की प्रकृति 'न' के पक्ष में है। खड़ीबोली में 'ण' और 'न' का प्रयोग संस्कृत नियमों के आधार पर होता है। पंजाबी और राजस्थानी भाषा में 'ण' ही बोला जाता है। 'न' का प्रयोग करते समय निम्रांकित नियमों को ध्यान में रखना चाहिए-

(क) संस्कृत की जिन धातुओं में 'ण' होता है, उनसे बने शब्दों में भी 'ण' रहता है; जैसे- क्षण, प्रण, वरुण, निपुण, गण, गुण।

(ख) किसी एक ही पद में यदि ऋ, र् और ष् के बाद 'न्' हो तो 'न्' के स्थान पर 'ण' हो जाता है, भले ही इनके बीच कोई स्वर, य्, व्, ह्, कवर्ग, पवर्ग का वर्ण तथा अनुस्वार आया हो।
जैसे- ऋण, कृष्ण, विष्णु, भूषण, उष्ण, रामायण, श्रवण इत्यादि।
किन्तु, यदि इनसे कोई भित्र वर्ण आये तो 'न' का 'ण' नहीं होता। जैसे- अर्चना, मूर्च्छना, रचना, प्रार्थना।

(ग) कुछ तत्सम शब्दों में स्वभावतः 'ण' होता है; जैसे- कण, कोण, गुण, गण, गणिका, चाणक्य, मणि, माणिक्य, बाण, वाणी, वणिक, वीणा, वेणु, वेणी, लवण, क्षण, क्षीण, इत्यादि।

'छ' और 'क्ष' की अशुद्धियाँ- 'छ' यदि एक स्वतन्त्र व्यंजन है, तो 'क्ष' संयुक्त व्यंजन। यह क् और ष् के मेल से बना है। 'क्ष' संस्कृत में अधिक प्रयुक्त होता है;
जैसे- शिक्षा, दीक्षा, समीक्षा, प्रतीक्षा, परीक्षा, क्षत्रिय, निरीक्षक, अधीक्षक, साक्षी, क्षमा, क्षण, अक्षय, तीक्ष्ण, क्षेत्र, क्षीण, नक्षत्र, अक्ष, समक्ष, क्षोभ इत्यादि।

'ब' और 'व' की अशुद्धियाँ- 'ब' और 'व' के प्रयोग के बारे में हिन्दी में प्रायः अशुद्धियाँ होती हैं। इन अशुद्धियों का कारण है अशुद्ध उच्चारण। शुद्ध उच्चारण के आधार पर ही 'ब' और 'व' का भेद किया जाता है। 'ब' के उच्चारण में दोनों होंठ जुड़ जाते हैं, पर 'व' के उच्चारण में निचला होंठ उपरवाले दाँतों के अगले हिस्से के निकट चला जाता है और दोनों होंठों का आकार गोल हो जाता है, वे मिलते नहीं हैं। ठेठ हिन्दी में 'ब' वाले शब्दों की संख्या अधिक है, 'व' वालों की कम। ठीक इसका उल्टा संस्कृत में है। संस्कृत में 'व' वाले शब्दों की अधिकता हैं- बन्ध, बन्धु, बर्बर, बलि, बहु, बाधा, बीज, बृहत्, ब्रह्म, ब्राह्मण, बुभुक्षा। संस्कृत के 'व' वाले प्रमुख शब्द हैं- वहन, वंश, वाक्, वक्र, वंचना, वत्स, वदन, वधू, वचन, वपु, वर्जन, वर्ण, वन्य, व्याज, व्यवहार, वसुधा, वायु, विलास, विजय।

विशेष- संस्कृत में कुछ शब्द ऐसे हैं, जो 'व' और 'ब' दोनों में लिखे जाते हैं और दोनों शुद्ध माने जाते हैं। पर हिन्दी बोलियों में इस प्रकार के शब्दों में 'ब' वाला रूप ही अधिक चलता है। प्रायः 'व' का 'ब' होने पर या 'ब' का 'व' होने पर अर्थ बदल जाता है; जैसे- वहन-बहन। शव-शब। वार-बार। रव-रब। वली-बली। वाद-बाद। वात-बात।

'श', 'ष' और 'स' की अशुद्धियाँ- 'श', 'ष' और 'स' भित्र-भित्र अक्षर हैं। इन तीनों की उच्चारण-प्रक्रिया भी अलग-अलग है। उच्चारण-दोष के कारण ही वर्तनी-सम्बन्धी अशुद्धियाँ होती हैं। इनके उच्चारण में निम्रांकित बातों की सावधानी रखी जाय-

(क) 'ष' केवल संस्कृत शब्द में आता है; जैसे- कषा, सन्तोष, भाषा, गवेषणा, द्वेष, मूषक, कषाय, पौष, चषक, पीयूष, पुरुष, शुश्रूषा, भाषा, षट्।

(ख) जिन संस्कृत शब्दों की मूल धातु में 'ष' होता है, उनसे बने शब्दों में भी 'ष' रहता है, जैसे- 'शिष्' धातु से शिष्य, शिष्ट, शेष आदि।

(ग) सन्धि करने में क, ख, ट, ठ, प, फ के पूर्व आया हुआ विसर्ग ( : ) हमेशा 'ष' हो जाता है।

(घ) यदि किसी शब्द में 'स' हो और उसके पूर्व 'अ' या 'आ' के सिवा कोई भित्र स्वर हो तो 'स' के स्थान पर 'ष' होता है।

(ङ) टवर्ग के पूर्व केवल 'ष' आता है ; जैसे- षोडश, षडानन, कष्ट, नष्ट।

(च) ऋ के बाद प्रायः 'ष' ही आता है ; जैसे- ऋषि, कृषि, वृष्टि, तृषा।

(छ) संस्कृत शब्दों में च, छ, के पूर्व 'श्' ही आता है; जैसे- निश्र्चल, निश्छल।

(ज) जहाँ 'श' और 'स' एक साथ प्रयुक्त होते हैं वहाँ 'श' पहले आता है; जैसे- शासन, शासक, प्रशंसा, नृशंस।

(झ) जहाँ 'श' और 'ष' एक साथ आते हैं, वहाँ 'श' के पश्र्चात् 'ष' आता है; जैसे- शोषण, शीर्षक, शेष, विशेष इत्यादि।

(ञ) उपसर्ग के रूप में नि:, वि आदि आनेपर मूल शब्द का 'स' पूर्ववत् बना रहता है; जैसे- नि:संशय, निस्सन्देह, विस्तृत, विस्तार।

(ट) यदि तत्सम शब्दों में 'श' हो तो उसके तद्भव में 'स' होता है; जैसे- शूली-सूली, शाक-साग, शूकर-सूअर, श्र्वसुर-ससुर, श्यामल-साँवला।

(ठ) कभी-कभी 'स्' के स्थान पर 'स' लिखकर और कभी शब्द के आरम्भ में 'स्' के साथ किसी अक्षर का मेल होने पर अशुद्धियाँ होती हैं;
जैसे- स्त्री (शुद्ध)-इस्त्री (अशुद्ध), स्नान (शुद्ध)-अस्नान (अशुद्ध), परस्पर (शुद्ध)-परसपर (अशुद्ध)।

(ड) कुछ शब्दों के रूप वैकल्पिक होते हैं; जैसे- कोश-कोष, केशर-केसर, कौशल्या-कौसल्या, केशरी-केसरी, कशा-कषा, वशिष्ठ-वसिष्ठ। ये दोनों शुद्ध हैं।